Description
अनुक्रमणिका
- बुद्धिमुझे दो शारदा
- विश्वकर्मा
- श्रीगणेश
- मंगल कलश
- ॐ महत्तम मंत्र
- पंच अंगुल
- स्वस्तिक
- प्रभुयीशु
- कुल-देव
- विद्या-धन
- लालभूमि
- पीली-हरी जमी
- शूद्रा भूमि
- मीठी-मीठी भू
- सर्वश्रेष्ठ प्लाट
- चक्राकार प्लाट
- धनुष सरीखे प्लाट
- तबला जैसी भू
- त्रिभुज
- खरीदलो प्लाट आयत
- मृदंगनुमा भवन
- चार भुजा असमान
- शकटाकार जमी
- चमचा जैसी भू
- अण्डा जैसा प्लाट
- भू डमरू आकार
- चंद्र सरीखा सदन
- पूरब राखे रोड़
- पूरब-पश्चिम रोड
- उत्तर-दक्षिण रोड़
- अग्नि कोण के रोड़
- ईशान रोड़
- दक्षिण-पश्चिम रोड़
- मेन रोड़ उत्तर रहे
- दक्षिण रोड
- चार दिशा में रोड़
- सफलता के गेट
- दक्षिण द्वार रखो बड़ा
- मेन गेट
- दरवाजा ऐसा रखा
- दो-दो दरवाजे
- भागे कर्जा
- पैसा
- कर्जा
- सौ गुणी आपकी आय
- जीना
- शेरमुखी भूमि
- कर्ज करे जब खेल
- पानी के टैंक
- घर के बीच कुआं
- हाईट
- गहरी नींव
- गली-गली
- श्रेष्ठतम मकान
- रचो कमरा नैऋत
- हालत
- टाँग.
- ऑफिस
- चबूतरा
- पूरब-उत्तर रोड़
- स्वीमिंग पूल
- उत्तर दिशा रखो खुली
- ईशान कोण
- ऐसा होय मकान
- जावे जल ईशान
- हो पास श्मशान
- जल-स्थान
- नोट छपने की फैक्ट्री
- उत्तर की दीवार
- सुधारो भैया जीना
- कुआं
- ठण्डी दुकान
- पिरामिड ढलान
- भूमि शेरमुखी
- भूमि गौमुखी
- न्यून कोण
- तीन इंच गली
- रूप वर्गाकार
- बिके कहीं वह प्लाट
- अग्नि कोण जीना
- पूरब खुली जगह
- दक्षिण ढलान
- प्रवेश निषेध
- गृह-प्रवेश
- अच्छे-अच्छे कोण
- मंदिर
- सूरज
- जल-प्रवाह
- बढ़े भुजा ईशान की
- फूलदार पौधे
- देखानीम वैद्य भगा
- छोटी उम्र मकान
- श्रेष्ठतम् सोमवार
- शल्य-शोधन
- भू-विस्तार
- पूजाघर
- वायुकोण भरो अनाज
- भारी सामान
- मेहमान बिजली का मीटर
- चारगेट
- स्वर्णसीढ़ी
- धन की दिशा
- भगतराम
- मछली जैसी प्रीत
- खिड़की
शिल्प कला पर सो कुंडलिया “लेखकीय”
ॐ शब्द द्वारा विश्व के सभी देवी-देवताओं को नमन एवं धरतीमाता को साष्टांग दण्डवत् करते हुए वास्तुशास्त्र विषय की इस पुस्तक के बारे में कुछ इस प्रकार निवेदन करना चाहँूगा कि वास्तुशास्त्र सैकड़ों नहीं हजारों वषो पुराना होकर हमारे वैदिक ज्ञान-भण्डार का अतिमहत्त्वपूर्ण भाग रहा है। देव-दानव नामक दो विपरीत संस्कृतियाँ सृष्टि के आदि काल से ही साथ-साथ चलती आ रही हैं। हर युग में मानव-जीवन के इस तराजू में पहले पाप का पलड़ा भारी हुआ, फिर देव अवतार का अतिरिक्त बाट लगने से पुण्य का पलड़ा भारी हुआ। इस प्रकार तराजू के पलड़ों का यह अप-डाउन चलता ही रहा और चलता रहेगा।
धार्मिक साहित्य में अथर्ववेद,स्कन्दपुराण,गरुड़पुराण,वायुपुराण, अग्निपुराण, मत्स्यपुराण, नारदपुराण में वास्तु-सिद्धान्तों का भरपूर वर्णन मिलता है। बौद्ध व जैन धर्म की पुस्तकों के साथ-साथ रामायण,महाभारत,कौटिल्य का अर्थशास्त्र,पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे प्राचीन ग्रंथों में जगह-जगह पर वास्तु सिद्धांतों के दीपक प्रकाश-स्तम्भ की भाँति हर मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं।
इनके अतिरिक्त भी वास्तु के प्रमुख ग्रंथों में विश्वकर्मा प्रकाश, शिल्प संग्रह, मय मत, राजवल्लभ, मानसार, वास्तुरत्नावली, शिल्प रत्न, चित्र लक्षण, रूप मण्डन, समरांगण, मुहूर्त मार्तंण्ड, हलायुध कोष, वृहद् वास्तुमाला, नारद संहिता, भुवन प्रदीप आदि ग्रंथों में वास्तु के अनुपम सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
आदि काल से ही विश्व का प्रत्येक प्राणी अपने लिए एक आरामदायक आवास का आकांक्षी रहा है। सही विधि से पर्याप्त परिश्रम करने वालों को इस कार्य में सफल होते देखा गया है। चिड़िया, कबूतर, कौए आदि वृक्षों पर घोंसला बनाते हैं तो तोते वृक्षों को खोद-खोद कर अपनी कोटर बना लेते हैं। भँवरा कमल के पत्तों में ही विश्राम करता है, तो चूहे अपना बिल व संाप अपनी बांबी बना-बना कर रहते आए हैं। जंगल का राजा शेर पर्वतों में अपनी गुफाएँ ढूँढ़ ही लेता है। हमारे पूर्वज, श्रेष्ठ वानरों ने जब पेड़ की डालियों पर बैठे-बैठे समस्त प्राणियों को अपने-अपने आवास में ज्यादा सुरक्षित देखा तब निश्चित ही कुछ मेहनती बंदरों ने पर्णकुटी, झोपड़ियों आदि का निर्माण- कार्य प्रारंभ किया होगा। भवन-निर्माण, कृषि, आखेट आदि कार्य करते हुए वे
धीरे-धीरे मनुष्य बन गए, और शेष आलसी बंदर आज भी उसी रूप में रह गए।
धीरे-धीरे मनुष्य बन गए, और शेष आलसी बंदर आज भी उसी रूप में रह गए।
निर्माण-कार्य की प्रबल इच्छा शक्ति के साथ ही वास्तुशास्त्र का जन्म हुआ। ऋषि-मुनियों ने तप-बल, योग-बल व अनुभव से सहस्रों वास्तु- सिद्धांत मानव जाति को दिए। यह ज्ञान अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में
रहा है। संसार के प्रथम राजा पृथु की समकालीन घटना है कि राजा पृथु पृथ्वी को समतल करना चाह रहे थे। भयभीत पृथ्वी ने गाय का रूप धारण कर स्वर्ग में जाकर ब्रह्माजी से निवेदन किया कि मेरा कष्ट दूर करें। उसी समय राजा पृथु भी वहाँ पहुँच कर कहने लगे मैं राजा हँू , स्थापत्य कार्य कैसे करूँ र्षोर्षो समस्या का हल निकालते हुए ब्रह्माजी ने विश्वकर्मा को बुलवाया और संसार के निर्माण का कार्य उन्हें सौंपा। विश्वकर्मा देेवपुरियाँ तथा अमरावती के निर्माण कार्यों में व्यस्त थे, उन्होंने मृत्युलोक के लिए भी कई सारे वास्तु-सिद्धांत बनाए। मय राक्षसों के एवं विश्वकर्मा देवताओं के प्रथम वास्तुविद् थे, जो भूवासियों के लिए भी प्रथम वास्तुविद् हुए। विश्वकर्मा प्रभासवसु के पुत्र एवं देवगुरु बृहस्पति के भांजे थे।
उक्त वास्तुकारों द्वारा अनेक अद्भुत ईमारतें बनीं, जो युग परिवर्तन एवं प्रलय के कारण नष्ट होती रहीं। साथ-साथ ज्ञान का अधिकांश भाग भी प्रलय के विकराल मँुह का छोटा-सा ग्रास बन कर नष्ट होता रहा, किन्तु जितना भी ज्ञान बचा हुआ है वह भी सम्पूर्ण मानव-जाति को सभी प्रकार के सुख देने में पूर्ण सक्षम है।
उत्तर वैदिककाल के पश्चात् अलग-अलग कार्य करने वालों की अलग-अलग जातियाँ बन गईं यथा-तेली, स्वर्णकार, चर्मकार, लोहार, शिल्पकार, कुम्भकार इत्यादि। शिल्पकार जाति को आजकल कुमावत, चेजारे सिलावट, मिस्त्री आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
सौभाग्य से मेरा जन्म कुमावत जाति में हुआ । मेरे पिता, दादा, परदादा…. वे सभी कई पीढ़ियों से भवन-निर्माण का कार्य करते आए हैं, इसलिए वास्तुशास्त्र के ज्ञान के कुछ चमकीले हीरे तो हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते रहे। आजकल कई अन्य जातियों के लोग भी इस व्यवसाय को अपनाते हुए निर्माण-कार्य में अपना योगदान दे रहे हैं, यह गौरव की बात है।
पिछले कुछ वषो से यह वास्तुशास्त्रीय ज्ञान पुस्तकालय की चार दीवारी से निकल कर आम जनता के साथ बैठने-उठने लगा है। कठिन सिद्धांतों के संस्कृत श्लोकों का सरल अर्थ मय चित्रों के दर्शाते हुए अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनसे जिज्ञासु पाठकों की रूचि में आशातीत अभिवृद्धि हुई है। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल कई पाठक ऐसे हैं जो वास्तुशास्त्र का केवल नाम ही नहीं जानते, बल्कि उनके प्रमुख सिद्धांत भी जानते हैं। यह आपके जीवन में सुख-शांति, उन्नति व विविध खुशियों के आगमन का पूर्व संकेत भी है।
मैं न तो महान् ज्योतिषाचार्य हँू न महान् वास्तुशास्त्री हँू। इस स्वनिर्मित `महान´ शब्द से तो मैं सदैव कौसों दूर रहना चाहता हँू। मैं इतना अवश्य जानता हँू कि संगीत संसार का जिंदा जादू था, है और रहेगा। सरगम के सांचों में ढला हुआ शब्द चरमोत्कर्ष पाकर शब्द-ब्रह्म बन जाता है। संगीत की सिद्ध स्वर-लहरियाँ गायक को ही नहीं, श्रोताओं को भी अमर करने की सामथ्र्य रखती हैं, यथा-श्रीकृष्ण व गोपियाँ।
एक तरफ प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर,… आदि कवियों की प्रमुख रचनाओं, कविताओं व पुस्तकों के शीर्षक भी अभी तक आम-जनता तक नहीं पहँुच पाए हैं। दूसरी तरफ सैकड़ों वर्ष बीत जाने के पश्चात् भी कबीर, मीरा, रैदास, नानक, आदि भक्त कवियों द्वारा रचित भक्ति-काव्य के भजनों को भजन-मण्डलियाँ सारी-सारी रात गाते हुए भी थकती नहीं हैं। यह जन साधारण की बोल-चाल की उपभाषाओं का ही प्रभाव है। बोल-चाल की उपभाषाओं के काव्य को श्रोता व पाठक शीघ्र ही आत्मसात् कर लेते हैं। वास्तुशास्त्र के जटिल सिद्धांतों को सरल भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए मैंने छन्दों की कुण्डली विधा का चयन किया। हिन्दी के छन्दशास्त्र में इसे `कुण्डलिया´ कहा जाता है। यह मात्रिक विषम छन्द है। यह छ: पंक्तियों का संयुक्त छन्द होता है। प्रथम दो दल दोहे के होते हैं और अन्तिम चार रोले के होते हैं। `कुण्डलिया´ में `दोहा´ इस छन्द का पूर्वार्द्ध कहलाता है और `रोला´ इसका उत्तराद्ध्रZ कहलाता है। प्रत्येक पंक्ति में (13,11) की 24 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार कुल 144 मात्राएँ होती हैं। इसमें दोहे की 11 मात्राओं का अंतिम चतुर्थ चरण ही प्रथम रोले की 11 मात्राओं के प्रथम चरण के रूप में दोहराया जाता है। यह छन्द जिस शब्द से प्रारम्भ होता है उसी शब्द से पूर्ण होता है, अर्थात् वही आखिरी शब्द होता है। कई बार 13 मात्राओं के प्रथम चरण के प्रथम शब्द के अलावा अन्य शब्द भी कुण्डली का अंतिम शब्द होता है। मैरे द्वारा प्रस्तुत समाहित छन्दों में उक्त नियमों का यथा-शक्ति पालन करने का प्रयास किया गया है।
`हितेन सहितम् साहित्यम्´ के भाव से प्रभावित होकर मानव-जीवन की आवास व्यवस्थाओं के अधिकाधिक पहलुओं यथा-देव-वन्दना,वंश-वृद्वि,धन-वृद्धि, अध्यात्म,कर्जा,कोर्ट-कचहरी के विवाद,व्यवसायिक उन्नति,
भूमि के प्रकार, भूखण्ड के विभिन्न आकार जैसे विविध महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को मैंने अपने कुण्डली-काव्य के विषय बनाये हैं। रचनाओं के साथ-साथ कठिन शब्दार्थ देते हुए उनका सरल हिन्दी भाषा में भावार्थ भी दिया है। कुण्डली-काव्य द्वारा प्रदर्शित वास्तु-सिद्धांत को सुस्पष्ट करने के लिए उसके अनुरूप चित्रंाकन भी किया है , ताकि सामान्य पाठक उस मन्तव्य को भली-भाँति समझ कर अधि- काधिक लाभािन्वत हो सकें। रचनाये गरिमायुक्त शिष्ट शैक्षिक हास्यमय हैं। कुण्डलियोंं में विविध हास्य-कल्पनाओं का सहारा लेते हुए वास्तु-सिद्धांतों को हर दृष्टि से प्रभावी व रोचक बनाने का भरसक प्रयास किया है।
वास्तु के समस्त प्रभाव अदृश्य होने के कारण गृह-स्वामी उन्हें उचित महत्व नहींं दे पाते हैं। वे अपने भाग्य को ही बदनसीब कहते हुए पल-पल कोसते रहते हैं या अपने ही परिवार के किसी मित्र, पुत्र-पुत्री, या पुत्र-वधू आदि को शुभ-अशुभ करार देते हुए, उन पर दोषारोपण करते रहते हैं। वैसे अदृश्य शक्तियाँ अपना प्रभाव इन्हीं माध्यमों से दर्शाती हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति पूर्णत: वैज्ञानिक है। वास्तु के सारे सिद्धांत पाँच महाशक्तियों से (आकाश, वायु, जल, अग्नि व पृथ्वी) हमारा ताल-मेल बिठाते हुए इनसे हमारी कई पीढ़ियों तक के मधुर संबंध स्थापित कराते हैं।
आधुनिक विज्ञान हमारे वैदिक व यौगिक ज्ञान के समक्ष बहुत बौना है। आज के आधिकांश लोग मात्र
उन्हीं बातों को प्रामाणिक मानते हैं जिन्हें पाश्चात्य वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में सत्य सिद्ध कर पुस्तकोंं में छाप देते हैं। वास्तुशास्त्र के सिद्धांत प्रकृति रूपी महाशक्ति से आपका हाथ मिलवाते हुए आपको ढेर सारी खुशियाँ, धन-वृद्धि, वंश-वृद्धि, मानसिक शांति एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि दिलवाते हुए अंत में मोक्ष-प्राप्ति तक एक ईमानदार वकील की भूमिका निभाते हुए चारों पुरुषार्थों ंकी प्राप्ति करवा देते हैं। मैं विश्वास करता हँू कि यह पुस्तक वास्तुज्ञान देकर यथोचित मार्ग दर्शाती हुई आपकी एक प्रिय पुस्तक बनेगी।
इस पुस्तक के लिखने में मैंं सबसे पहले आभारी हँू पूज्य पिताजी स्व. श्री रतनलाल चंगेरिया का जिन्होंने जीवन भर एक राजकीय अध्यापक रह कर चित्तौड़गढ़ में नक्शा-नवीस का काम करते हुए हजारों इमारतों के नक्शे बना-बना कर शहर के तामीराती कामों में काफी मदद की। छ: भाई-बहनों के बीच मुझे भी एम.ए. तक पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बनाया कि मैं अपने इस खानदानी हुनर के बारे में कुछ लिख सकूँ। शिल्पकार एवं नक्शा-नवीस स्व.श्रीनारायणजी चंगेरिया के इकलौते पुत्र मेरे पितामह श्रीघीसा लाल चंगेरिया, जो 25 वर्ष पूर्व सन् 1975 में सिविल मिस्त्री के पद से सेवा-निवृत्त हुए। आप मेरे बचपन से ही मेरी कविताओं को आशीर्वाद देते रहे हैं। मैं आापका भी हृदय से आभारी हूँ। मेरे सबसे छोटे भाई नक्शा-नवीस श्री लक्ष्मीलाल चंगेरिया का जिन्होंने इन कुण्डलियों को `मेवाड़ी´ बोली के बजाय हिन्दी भाषा में रचने की प्रेरणा दी ताकि हजारों नहीं लाखों लोग उसे समझ सकें।
हीरे-मोती के व्यापारी मेरे मित्र श्री राकेश गदिया का भी मैं आभारी हँू कि जिन्होंने इस पुस्तक केप्रकाशन के पूर्व भी अनेकों बार अपनी शुभकामनाएँ देते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन किया साथ ही आभारी हूँ वैद्यराज श्री महावीर सक्सेना का जो मुझे इस पुस्तक की भावी सफलता दर्शाते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहे।
वास्तु की पुस्तकें लिखनेवाले उन तमाम लेखकों को मैं एक साथ नमन करता हँू, जिनकी पुस्तकोंं से मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि हुई है। अंत में फिर आभार व्यक्त करता हँू, मेरी पत्नी कंचन देवी चंगेरिया का, पुत्री कु. यशोदा व कु. नीलम का, पुत्र चन्द्रशेखर व चेतन का जिन्होंने मेरे हिस्से के कई सारे कार्य स्वयं करते हुए मुझे लेखन-कार्य के लिए स्वतंत्र रखा।
प्रिय पाठको ! कमियाँ, भूलें और त्रुटियाँ ही इंसानों को इंसान प्रमाणित करती हैं। श्रेष्ठतम् इन्सान वही है, जो उन तमाम भूलों को दुबारा नहीं भूले। इस पुस्तक में नये सुझाव, नवीनीकरण, शुद्धिकरण, परिवर्तन, अभिवर्द्धन जो भी आप आवश्यक समझें, उन्हें अवश्य मुझ तक पहुँचावें ताकि अगले संस्करण में आपके सुन्दर विचारों का लाभ उठा सकें।
आपकी शिकायत, सुझाव, व पसन्द के पत्रों की दीघZकालीन प्रतीक्षा में आपका स्नेही यह अमृत `वाणी´ अपलक प्रतीक्षारत है। इसका द्वितीय भाग सृजन के दौर से गुजर रहा है, वह भी शीघ्र ही आपके कर-कमलों में होगा।
मैं चाहता हँू कि आप सभी के भवन सभी प्रकार से सुख देने वाले हों, धन-धान्य के भण्डार भरे रहें और ऊँचाईयाँ सदैव बढ़ती रहें। एक कुण्डली के द्वारा उक्त सुविचारों को यँू प्रकट करना चाहूँगा।
मंजिल यँू बढ़ती रहे, बने वह विजय-स्तम्भ ।
अजातशत्रु सभी यहाँ, बने प्रकाश-स्तम्भ ।।
बने प्रकाश-स्तम्भ, जगत सौ-सौ सुख पावें ।
समझ कर वास्तु-ज्ञान, स्वर्ग-सा सदन बनावें ।।
कह `वाणी´ कविराज, होय सभी पल-पल सफल ।
कष्ट कभी ना होय, हो कामयाब हर मंजिल ।।
कवि अमृत `वाणी´
उक्त वास्तुकारों द्वारा अनेक अद्भुत ईमारतें बनीं, जो युग परिवर्तन एवं प्रलय के कारण नष्ट होती रहीं। साथ-साथ ज्ञान का अधिकांश भाग भी प्रलय के विकराल मँुह का छोटा-सा ग्रास बन कर नष्ट होता रहा, किन्तु जितना भी ज्ञान बचा हुआ है वह भी सम्पूर्ण मानव-जाति को सभी प्रकार के सुख देने में पूर्ण सक्षम है।
उत्तर वैदिककाल के पश्चात् अलग-अलग कार्य करने वालों की अलग-अलग जातियाँ बन गईं यथा-तेली, स्वर्णकार, चर्मकार, लोहार, शिल्पकार, कुम्भकार इत्यादि। शिल्पकार जाति को आजकल कुमावत, चेजारे सिलावट, मिस्त्री आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
सौभाग्य से मेरा जन्म कुमावत जाति में हुआ । मेरे पिता, दादा, परदादा…. वे सभी कई पीढ़ियों से भवन-निर्माण का कार्य करते आए हैं, इसलिए वास्तुशास्त्र के ज्ञान के कुछ चमकीले हीरे तो हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलते रहे। आजकल कई अन्य जातियों के लोग भी इस व्यवसाय को अपनाते हुए निर्माण-कार्य में अपना योगदान दे रहे हैं, यह गौरव की बात है।
पिछले कुछ वषो से यह वास्तुशास्त्रीय ज्ञान पुस्तकालय की चार दीवारी से निकल कर आम जनता के साथ बैठने-उठने लगा है। कठिन सिद्धांतों के संस्कृत श्लोकों का सरल अर्थ मय चित्रों के दर्शाते हुए अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनसे जिज्ञासु पाठकों की रूचि में आशातीत अभिवृद्धि हुई है। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आजकल कई पाठक ऐसे हैं जो वास्तुशास्त्र का केवल नाम ही नहीं जानते, बल्कि उनके प्रमुख सिद्धांत भी जानते हैं। यह आपके जीवन में सुख-शांति, उन्नति व विविध खुशियों के आगमन का पूर्व संकेत भी है।
मैं न तो महान् ज्योतिषाचार्य हँू न महान् वास्तुशास्त्री हँू। इस स्वनिर्मित `महान´ शब्द से तो मैं सदैव कौसों दूर रहना चाहता हँू। मैं इतना अवश्य जानता हँू कि संगीत संसार का जिंदा जादू था, है और रहेगा। सरगम के सांचों में ढला हुआ शब्द चरमोत्कर्ष पाकर शब्द-ब्रह्म बन जाता है। संगीत की सिद्ध स्वर-लहरियाँ गायक को ही नहीं, श्रोताओं को भी अमर करने की सामथ्र्य रखती हैं, यथा-श्रीकृष्ण व गोपियाँ।
एक तरफ प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर,… आदि कवियों की प्रमुख रचनाओं, कविताओं व पुस्तकों के शीर्षक भी अभी तक आम-जनता तक नहीं पहँुच पाए हैं। दूसरी तरफ सैकड़ों वर्ष बीत जाने के पश्चात् भी कबीर, मीरा, रैदास, नानक, आदि भक्त कवियों द्वारा रचित भक्ति-काव्य के भजनों को भजन-मण्डलियाँ सारी-सारी रात गाते हुए भी थकती नहीं हैं। यह जन साधारण की बोल-चाल की उपभाषाओं का ही प्रभाव है। बोल-चाल की उपभाषाओं के काव्य को श्रोता व पाठक शीघ्र ही आत्मसात् कर लेते हैं। वास्तुशास्त्र के जटिल सिद्धांतों को सरल भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए मैंने छन्दों की कुण्डली विधा का चयन किया। हिन्दी के छन्दशास्त्र में इसे `कुण्डलिया´ कहा जाता है। यह मात्रिक विषम छन्द है। यह छ: पंक्तियों का संयुक्त छन्द होता है। प्रथम दो दल दोहे के होते हैं और अन्तिम चार रोले के होते हैं। `कुण्डलिया´ में `दोहा´ इस छन्द का पूर्वार्द्ध कहलाता है और `रोला´ इसका उत्तराद्ध्रZ कहलाता है। प्रत्येक पंक्ति में (13,11) की 24 मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार कुल 144 मात्राएँ होती हैं। इसमें दोहे की 11 मात्राओं का अंतिम चतुर्थ चरण ही प्रथम रोले की 11 मात्राओं के प्रथम चरण के रूप में दोहराया जाता है। यह छन्द जिस शब्द से प्रारम्भ होता है उसी शब्द से पूर्ण होता है, अर्थात् वही आखिरी शब्द होता है। कई बार 13 मात्राओं के प्रथम चरण के प्रथम शब्द के अलावा अन्य शब्द भी कुण्डली का अंतिम शब्द होता है। मैरे द्वारा प्रस्तुत समाहित छन्दों में उक्त नियमों का यथा-शक्ति पालन करने का प्रयास किया गया है।
`हितेन सहितम् साहित्यम्´ के भाव से प्रभावित होकर मानव-जीवन की आवास व्यवस्थाओं के अधिकाधिक पहलुओं यथा-देव-वन्दना,वंश-वृद्वि,धन-वृद्धि, अध्यात्म,कर्जा,कोर्ट-कचहरी के विवाद,व्यवसायिक उन्नति,
भूमि के प्रकार, भूखण्ड के विभिन्न आकार जैसे विविध महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को मैंने अपने कुण्डली-काव्य के विषय बनाये हैं। रचनाओं के साथ-साथ कठिन शब्दार्थ देते हुए उनका सरल हिन्दी भाषा में भावार्थ भी दिया है। कुण्डली-काव्य द्वारा प्रदर्शित वास्तु-सिद्धांत को सुस्पष्ट करने के लिए उसके अनुरूप चित्रंाकन भी किया है , ताकि सामान्य पाठक उस मन्तव्य को भली-भाँति समझ कर अधि- काधिक लाभािन्वत हो सकें। रचनाये गरिमायुक्त शिष्ट शैक्षिक हास्यमय हैं। कुण्डलियोंं में विविध हास्य-कल्पनाओं का सहारा लेते हुए वास्तु-सिद्धांतों को हर दृष्टि से प्रभावी व रोचक बनाने का भरसक प्रयास किया है।
वास्तु के समस्त प्रभाव अदृश्य होने के कारण गृह-स्वामी उन्हें उचित महत्व नहींं दे पाते हैं। वे अपने भाग्य को ही बदनसीब कहते हुए पल-पल कोसते रहते हैं या अपने ही परिवार के किसी मित्र, पुत्र-पुत्री, या पुत्र-वधू आदि को शुभ-अशुभ करार देते हुए, उन पर दोषारोपण करते रहते हैं। वैसे अदृश्य शक्तियाँ अपना प्रभाव इन्हीं माध्यमों से दर्शाती हैं।
वास्तु के समस्त प्रभाव अदृश्य होने के कारण गृह-स्वामी उन्हें उचित महत्व नहींं दे पाते हैं। वे अपने भाग्य को ही बदनसीब कहते हुए पल-पल कोसते रहते हैं या अपने ही परिवार के किसी मित्र, पुत्र-पुत्री, या पुत्र-वधू आदि को शुभ-अशुभ करार देते हुए, उन पर दोषारोपण करते रहते हैं। वैसे अदृश्य शक्तियाँ अपना प्रभाव इन्हीं माध्यमों से दर्शाती हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति पूर्णत: वैज्ञानिक है। वास्तु के सारे सिद्धांत पाँच महाशक्तियों से (आकाश, वायु, जल, अग्नि व पृथ्वी) हमारा ताल-मेल बिठाते हुए इनसे हमारी कई पीढ़ियों तक के मधुर संबंध स्थापित कराते हैं।
आधुनिक विज्ञान हमारे वैदिक व यौगिक ज्ञान के समक्ष बहुत बौना है। आज के आधिकांश लोग मात्र
उन्हीं बातों को प्रामाणिक मानते हैं जिन्हें पाश्चात्य वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में सत्य सिद्ध कर पुस्तकोंं में छाप देते हैं। वास्तुशास्त्र के सिद्धांत प्रकृति रूपी महाशक्ति से आपका हाथ मिलवाते हुए आपको ढेर सारी खुशियाँ, धन-वृद्धि, वंश-वृद्धि, मानसिक शांति एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि दिलवाते हुए अंत में मोक्ष-प्राप्ति तक एक ईमानदार वकील की भूमिका निभाते हुए चारों पुरुषार्थों ंकी प्राप्ति करवा देते हैं। मैं विश्वास करता हँू कि यह पुस्तक वास्तुज्ञान देकर यथोचित मार्ग दर्शाती हुई आपकी एक प्रिय पुस्तक बनेगी।
इस पुस्तक के लिखने में मैंं सबसे पहले आभारी हँू पूज्य पिताजी स्व. श्री रतनलाल चंगेरिया का जिन्होंने जीवन भर एक राजकीय अध्यापक रह कर चित्तौड़गढ़ में नक्शा-नवीस का काम करते हुए हजारों इमारतों के नक्शे बना-बना कर शहर के तामीराती कामों में काफी मदद की। छ: भाई-बहनों के बीच मुझे भी एम.ए. तक पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बनाया कि मैं अपने इस खानदानी हुनर के बारे में कुछ लिख सकूँ। शिल्पकार एवं नक्शा-नवीस स्व.श्रीनारायणजी चंगेरिया के इकलौते पुत्र मेरे पितामह श्रीघीसा लाल चंगेरिया, जो 25 वर्ष पूर्व सन् 1975 में सिविल मिस्त्री के पद से सेवा-निवृत्त हुए। आप मेरे बचपन से ही मेरी कविताओं को आशीर्वाद देते रहे हैं। मैं आापका भी हृदय से आभारी हूँ। मेरे सबसे छोटे भाई नक्शा-नवीस श्री लक्ष्मीलाल चंगेरिया का जिन्होंने इन कुण्डलियों को `मेवाड़ी´ बोली के बजाय हिन्दी भाषा में रचने की प्रेरणा दी ताकि हजारों नहीं लाखों लोग उसे समझ सकें।
हीरे-मोती के व्यापारी मेरे मित्र श्री राकेश गदिया का भी मैं आभारी हँू कि जिन्होंने इस पुस्तक केप्रकाशन के पूर्व भी अनेकों बार अपनी शुभकामनाएँ देते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन किया साथ ही आभारी हूँ वैद्यराज श्री महावीर सक्सेना का जो मुझे इस पुस्तक की भावी सफलता दर्शाते हुए मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहे।
वास्तु की पुस्तकें लिखनेवाले उन तमाम लेखकों को मैं एक साथ नमन करता हँू, जिनकी पुस्तकोंं से मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि हुई है। अंत में फिर आभार व्यक्त करता हँू, मेरी पत्नी कंचन देवी चंगेरिया का, पुत्री कु. यशोदा व कु. नीलम का, पुत्र चन्द्रशेखर व चेतन का जिन्होंने मेरे हिस्से के कई सारे कार्य स्वयं करते हुए मुझे लेखन-कार्य के लिए स्वतंत्र रखा।
वास्तु की पुस्तकें लिखनेवाले उन तमाम लेखकों को मैं एक साथ नमन करता हँू, जिनकी पुस्तकोंं से मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि हुई है। अंत में फिर आभार व्यक्त करता हँू, मेरी पत्नी कंचन देवी चंगेरिया का, पुत्री कु. यशोदा व कु. नीलम का, पुत्र चन्द्रशेखर व चेतन का जिन्होंने मेरे हिस्से के कई सारे कार्य स्वयं करते हुए मुझे लेखन-कार्य के लिए स्वतंत्र रखा।
प्रिय पाठको ! कमियाँ, भूलें और त्रुटियाँ ही इंसानों को इंसान प्रमाणित करती हैं। श्रेष्ठतम् इन्सान वही है, जो उन तमाम भूलों को दुबारा नहीं भूले। इस पुस्तक में नये सुझाव, नवीनीकरण, शुद्धिकरण, परिवर्तन, अभिवर्द्धन जो भी आप आवश्यक समझें, उन्हें अवश्य मुझ तक पहुँचावें ताकि अगले संस्करण में आपके सुन्दर विचारों का लाभ उठा सकें।
आपकी शिकायत, सुझाव, व पसन्द के पत्रों की दीघZकालीन प्रतीक्षा में आपका स्नेही यह अमृत `वाणी´ अपलक प्रतीक्षारत है। इसका द्वितीय भाग सृजन के दौर से गुजर रहा है, वह भी शीघ्र ही आपके कर-कमलों में होगा।
मैं चाहता हँू कि आप सभी के भवन सभी प्रकार से सुख देने वाले हों, धन-धान्य के भण्डार भरे रहें और ऊँचाईयाँ सदैव बढ़ती रहें। एक कुण्डली के द्वारा उक्त सुविचारों को यँू प्रकट करना चाहूँगा।
मंजिल यँू बढ़ती रहे, बने वह विजय-स्तम्भ ।
अजातशत्रु सभी यहाँ, बने प्रकाश-स्तम्भ ।।
बने प्रकाश-स्तम्भ, जगत सौ-सौ सुख पावें ।
समझ कर वास्तु-ज्ञान, स्वर्ग-सा सदन बनावें ।।
कह `वाणी´ कविराज, होय सभी पल-पल सफल ।
कष्ट कभी ना होय, हो कामयाब हर मंजिल ।।
अजातशत्रु सभी यहाँ, बने प्रकाश-स्तम्भ ।।
बने प्रकाश-स्तम्भ, जगत सौ-सौ सुख पावें ।
समझ कर वास्तु-ज्ञान, स्वर्ग-सा सदन बनावें ।।
कह `वाणी´ कविराज, होय सभी पल-पल सफल ।
कष्ट कभी ना होय, हो कामयाब हर मंजिल ।।
कवि अमृत `वाणी´